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ऐतिहासिक नंदादेवी मंदिर का क्या है महत्व, कब से हुई मेले की शुरुआत, जानिए पूरा इतिहास

ByReporter

Aug 21, 2022

अल्मोड़ा। उत्तराखण्ड सहित समूचे हिमालय में नंदा देवी का बहुत महत्व है। कहा जाता है कि नंदा देवी के सम्मान में यहां नगर बसाये गये उनके नाम पर नदियों, चोटियों का नामकरण हुआ। पूरे कुमाऊं और गढ़वाल में नंदा देवी को अपने इष्ट, आराध्या बहन और बेटी के रुप में पूजा जाता है। वहीं अल्मोड़ा की नंदा देवी के सम्मान में जगह जगह मेले आयोजित किये जाते है।
अल्मोड़ा नगर के मध्य में स्थित ऐतिहासिक नन्दादेवी मंदिर में प्रतिवर्ष भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को लगने वाले मेले की रौनक ही कुछ अलग है। अल्मोड़ा शहर सोलहवीं शती के छठे दशक के आसपास चंद राजाओं की राजधानी के रूप में विकसित हुआ था। यह मेला चंद वंश की राज परम्पराओं से सम्बन्ध रखता है। पंचमी तिथि से प्रारम्भ मेले के अवसर पर दो भव्य देवी की प्रतिमायें बनायी जाती हैं। पंचमी की रात्रि से ही जागर भी प्रारंभ होता है। यह प्रतिमायें कदली स्तम्भ से निर्मित की जाती हैं। नन्दा की प्रतिमा का स्वरुप उत्तराखंड की सबसे ऊँची चोटी नन्दादेवी की तरह बनाया जाता है। स्कंद पुराण के मानस खंड में बताया गया है कि नन्दा पर्वत के शीर्ष पर नन्दादेवी का वास है। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि नन्दादेवी प्रतिमाओं का निर्माण कहीं न कहीं तंत्र जैसी जटिल प्रक्रियाओं से सम्बन्ध रखता है। भगवती नन्दा की पूजा तारा शक्ति के रूप में षोडशोपचार, पूजन, यज्ञ और बलिदान से की जाती है। सम्भवतः यह मातृ-शक्ति के प्रति आभार प्रदर्शन है, जिसकी कृपा से राजा बाज बहादुर चंद को युद्ध में विजयी होने का गौरव प्राप्त हुआ। षष्ठी के दिन गोधूली बेला में केले के वृक्षों का चयन विशिष्ट प्रक्रिया और विधि-विधान के साथ किया जाता है। षष्ठी के दिन पुजारी गोधूली के समय चन्दन, अक्षत, पूजन का सामान तथा लाल एवं श्वेत वस्त्र लेकर केले के झुरमुटों के पास जाता है। धूप-दीप जलाकर पूजन के बाद अक्षत मुट्ठी में लेकर कदली स्तम्भ की ओर फेंके जाते हैं। जो स्तम्भ पहले हिलता है उससे नन्दा बनायी जाती है , जो दूसरा हिलता है, उससे सुनन्दा तथा तीसरे से देवी शक्तियों के हाथ पैर बनाये जाते हैं। कुछ विद्धान मानते हैं कि नन्दा प्रतिमायें नील सरस्वती एवं अनिरुद्ध सरस्वती की हैं। पूजन के अवसर पर नन्दा का आह्ववान महिषासुर मर्दिनी के रूप में किया जाता है। सप्तमी के दिन झुंड से स्तम्भों को काटकर लाया जाता है। इसी दिन कदली स्तम्भों की पहले चंदवंशीय कुँवर या उनके प्रतिनिधि पूजन करते हैं। उसके बाद मंदिर के अन्दर प्रतिमाओं का निर्माण होता है। प्रतिमा निर्माण मध्य रात्रि से पूर्व तक पूरा हो जाता है। मध्य रात्रि में इन प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा करने के बाद पूजा सम्पन्न होती है। मुख्य मेला अष्टमी को प्रारंभ होता है। इस दिन ब्रह्ममुहूर्त से ही मांगलिक परिधानों में सजी संवरी महिलायें भगवती पूजन के लिए मंदिर में आना प्रारंभ कर देती हैं, अष्टमी की रात्रि को परम्परागत चली आ रही मुख्य पूजा चंदवंशीय प्रतिनिधियों द्वारा सम्पन्न की जाती है। अन्त में डोला उठता है, जिसमें दोनों देवी विग्रह रखे जाते हैं। नगर भ्रमण के समय पुराने महल ड्योढ़ी पोखर से भी महिलायें डोले का पूजन करती हैं। अन्त में नगर के समीप स्थित एक कुँड में देवी प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है। इस मेले के दौरान कुमाऊँ की लोक गाथाओं को लय देकर गाने वाले गायक जगरिये मंदिर में आकर नन्दा की गाथा का गायन करते हैं। मेले में झोड़े, छपेली, छोलिया जैसे नृत्य हुड़के की थाप पर सुनाई देते हैं। कहा जाता है कि कुमाऊँ की संस्कृति को समझने के लिए नन्दादेवी मेला देखना जरुरी है।
कब से शुरू हुआ था नंदादेवी का मेला
इतिहासकार कौशल किशोर के अनुसार अल्मोड़ा में नन्दादेवी के मेले का इतिहास के बारे में लोगों का मानना है कि राजा बाज बहादुर चंद (सन् 1638 से 78) ही नन्दा की प्रतिमा को गढ़वाल से उठाकर अल्मोड़ा लाये थे। इस विग्रह को उन्होंने उस समय कचहरी स्थित मल्ला महल में स्थापित किया था। कहा जाता है कि अल्मोड़ा का नंदा देवी का मेला 1671 से अल्मोड़ा में प्रारम्भ हुआ था। बाद में कुमाऊँ के तत्कालीन कमिश्नर ट्रेल ने नन्दा की प्रतिमा को मल्ला महल से हटाकर दीप चंदेश्वर मंदिर में स्थापित करवाया था। कहा जाता है कि वर्तमान में स्थित मंदिर में 1816 से मेले का आयोजन होते आ रहा है।
इतिहास कारों के अनुसार कहा जाता है कि चंद राजाओं के शासन काल में इन मंदिरों को बनाया गया था। तत्कालीन राजा उद्योतचंद्र ने अल्मोड़ा इन मंदिरों का निमार्ण किया था। वर्तमान में नंदा देवी परिसर में तीन देवालय है जिनमें पार्वतेश्वर और उद्योतचंद्रेश्वर देवालय काफी प्राचीन देवालयों में है जबकि दीपचंद्रेश्वर देवालय का निर्माण राजा दीप चंद ने बाद में किया था जिसमें वर्तमान में नंदा देवी का मंदिर है। इस परिसर को उस समय दीचंद्रेश्वर मंदिर के नाम से ही जाना जाता रहा। उसके बाद गोरखा शासन काल में इस परिसर को मां नंदा देवी मंदिर के नाम से जाना जाने लगा। वर्तमान में इसी परिसर में नंदा देवी का मेला लगता है।
नंदा देवी परिसर में स्थित पार्वतेश्वर और उद्योतचंद्रेश्वर मंदिर की बनावट नागर शैली के है, जिसमें भव्य नक्काशी दिखाई देती है। मंदिर की दिवारों में अनेक चित्र बने हैं। मंदिर के उपर आठ खम्बों का बिजोरा बना हुआ है। जो मंदिर की सुरक्षा के लिए है।

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